बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
अथवा
"सुख उत्तेजक है, कर्मों का साध्य नहीं।' व्याख्या कीजिये।
अथवा
मनोवैज्ञानिक सुखवाद का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
उत्तर -
मनोवैज्ञानिक सुखवाद
मनोवैज्ञानिक सुखवाद के अनुसार, मनुष्य स्वभाव से ही सुख की खोज करता है तथा दुःख से दूर भागता है।
वैन्थम के अनुसार "प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुःख नामक दो सर्वशक्तिमान स्वामियों के अधीन रखा है, उनको ही यह संकेत करना है कि हमें क्या करना चाहिए और हम क्या करेंगे।'
"Nature has placed man kind under the governance of two soverance masters, pain and pleasure. It is for them alone to point out what we ought to do as well as what we shall do." Bentham
प्रत्येक व्यक्ति इन कार्यों को करना चाहता है जो उन्हें सुख देता है। सिरेनेक्स तथा एपीक्यूरियन्स के अनुसार वस्तुएँ स्वयं साध्य नहीं हैं, अपितु सुख का साधन मात्र हैं।
मिल के अनुसार "किसी वस्तु की इच्छा करना और उसको सुखदायक पाना, उससे भागना और उसे सुखमयं समझना सर्वथा अपृथक तथ्य है अथवा एक ही तथ्य के दो रूप हैं। एक वस्तु को वांछनीय समझना ओर उसको सुखकर समझना एक ओर वही बात है किसी वस्तु को उसके विचार के सुखकर होने के अनुपात के अतिरिक्त चाहना एक ओर भौतिक और आध्यात्मिक असम्भावना है।'
"......desiring a thing and finding it pleasant aversion to it and thinking of it as painful, are phenomena entirely inseparable, rather two parts of the same phenomenon, to think of an object as desirable and think except in proportion as the idea of it is pleasant, is a physical and metaphysical impossibility.” Mill
अतः कहा जा सकता है कि व्यक्ति स्वभाववंश सुख प्राप्ति की ओर उन्मुख होता है क्या सुख प्राप्ति ही व्यक्ति के जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
मनोवैज्ञानिक सुखवाद की आलोचना
मनोवैज्ञानिक सुखवाद की आलोचना में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं
(1) मनोवैज्ञानिक सुखवाद नैतिक सिद्धान्त नहीं है - मनोवैज्ञानिक सुखवाद एक नैतिक सिद्धान्त नहीं है अपितु एक तथ्यात्मक सिद्धान्त है। मैकेन्जी के अनुसार नैतिक सुखवाद का मनोवैज्ञानिक सुखवाद से सामंजस्य नहीं हो सकता। नैतिक नियम सार्वभौम होते हैं उनका किसी देश-काल में परिवर्तन नहीं होता। परन्तु तथ्यात्मक नियम सार्वभौम होते हैं। ये परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं।
ग्रीन के अनुसार, "एक व्यक्ति जोकि केवल प्राकृतिक शक्तियों का परिणाम है उसे नैतिक नियमों का पालन करने का आदेश देना निरर्थक है।'
(2) मनोवैज्ञानिक सुखवाद मनोविज्ञान सम्मत नहीं है - मनोवैज्ञानिक सुखवादी अपने सिद्धान्त को मनोविज्ञान पर आधारित मानते हैं परन्तु वास्तव में यह सिद्धान्त मनोविज्ञान के अनुरूप नहीं है। यथार्थ रूप में मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया इस प्रकार है -
1. कर्म की अनुभूति,
2. वस्तु की इच्छा
3. वस्तु की प्राप्ति,
4. सुखानुभूति।
मनोवैज्ञानिक सुखवाद ने इनमें अन्तर नहीं किया है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद की त्रुटियों को स्पष्ट करते हुए रैशडल महोदय ने कहा है, "समस्त इच्छाओं की सन्तुष्टि में निःसंदेह सुख है, परन्तु यह इस बात से बिल्कुल भिन्न बात है कि वस्तु की इच्छा इसलिए की जाती है क्योंकि उसे सुखकर समझा जाता है। सुखवादी मनोविज्ञान में क्रम भंग दोष है। वह गाड़ी को घोड़े के आगे रख देता है। वास्तव में कल्पित सुखदायकता इच्छा से उत्पन्न होती है, इच्छा कल्पित सुखदायक से उत्पन्न नहीं होती है।'
"There is undoubtedly pleasure in the satisfaction of all desire. But that is very different thing from asserting that the object is desired because it is thought of as pleasant. The hedonistic psychology involves is hysteron proteron, it puts the cart before the horse. In reality the imagined pleasantness is created by the desire and not the desire by the imagined pleasantness." - Rashdall
सुखकर विचार सुख से भिन्न है
मनोवैज्ञानिक सुखवाद में भ्रमवश सुख के विचार तथा सुखकर विचार को एक मान लेते हैं जबकि दोनों में स्पष्ट अन्तर है। व्यक्ति द्वारा सदैव चुनी हुई वस्तु सुखकर होती है परन्तु व्यक्ति हमेशा सुख को नहीं चुनता। मनुष्य किसी वस्तु का चुनाव इसलिए करता है क्योंकि वह वस्तु सुख चुनाव का सक्रिय कारण हो सकती है परन्तु यह चुनाव का मूल कारण नहीं मानी जा सकती। इसके अतिरिक्त अन्य आलोचनाएँ भी की गई हैं, जैसे-
(1) तृप्ति इच्छाओं के उपरान्त होती है - मैकेन्जी ने कहा है कि "कुछ इच्छाओं के तृप्त होने पर ही सुख होता है और इच्छाएँ तृप्ति होने से पूर्व होनी चाहिए।"
(2) सुख शब्द द्विअर्थक है - मैकेन्जी के अनुसार यह तथ्य कि हम सुख चाहते हैं इस बात का प्रमाण नहीं है कि हम सुख की अनुभूति चाहते हैं।
(3) सुखवाद में विरोध होता है - मैकेन्जी के अनुसार यदि हम स्वयं सुख के विषय में सोचते हैं तो हम लगभग निश्चय ही उसको खो देंगे। दूसरी ओर यदि हम अपनी इच्छाओं को वस्तुगत साध्यों की ओर मोड़ते हैं तो सुख स्वयं आता है।
(4) जड़वादी आधार - मनोवैज्ञानिक सुखवाद जड़वादी तत्व दर्शन पर आधारित है। इस तत्व दर्शन का पर्याप्त खण्डन किया जा चुका है।
(5) सुख की एकांगी व्याख्या - सुखवादियों ने सुख की एकांगी व्याख्या की है केवल ऐन्द्रिक सुख ही एकमात्र सुख नहीं है न ही वह सर्वोत्तम सुख है, व्यक्ति का बौद्धिक विकास जितना होगा उतना ही अधिक वह सुखी होगा।
(6) बुद्धि इन्द्रियों की दासी - सुखवादियों ने बुद्धि के महत्व को समझा तो है परन्तु उसको इन्द्रियों की दासी बनाना चाहा। बुद्धि तथा भावनाओं के समुचित सामंजस्य द्वारा ही जीवन में सुख प्राप्त किया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त अन्य आलोचनाएँ निम्नवत् हैं -
1. अव्यावहारिकता
2 अनैतिकता
3. सार्वभौम सिद्धान्त की अनुपस्थिति
4. सुखवाद एकांगी है।
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- प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
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